Sahir Adeeb

The Poet of New Generations

Sunday, 3 December 2017

कोई आवाज़ महक उठी थी जादू बन कर


कोई आवाज़  महक  उठी  थी  जादू बन  कर
मेरी  साँसों  में वही  रहती  है खुश्बू  बन  कर
टूटते  दिल से  लहू के थे  जो  क़तरे  निकले
वो छलकते हैं मेरी आँखों  मे आँसू  बन कर
कोई  शीरीनी   सी  कानो में  घुली  जाती  है
बोलता  है  वो  सरापा  यूँही   उर्दू  बन   कर
तुम में ये चीज़ नहीं ये भी ग़लत वो भी ग़लत
जाने क्यूँ मिलता है अक्सर वो तराज़ू बन कर

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